कौन यह मैं, वो नहीं, नहीं नहीं , यह भी नहीं वो दूसरे, ये नहीं कोई और, वे भी नहीं यहाँ पर, वहां नहीं दूसरी जगह, वहां नहीं उस समय, अभी नहीं कोई और समय , तब भी नहीं सारे, हर जगह, हर समय ताकते हैं, स्मित विस्मृत क्यूँ सड़क कभी उबड़ खाबड़, कभी समतल ऊपर को जाती है, अंत तक। चलना होगा, लगातार रोशनी से अन्धकार तक। उठाये खुद जमा किये, जीवन के भार जो फिसलते गिरते हैं बार बार। क्यूँ ? कर्म के आनंद के लिए।
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बिमारी का बहाना बना, आत्मा करवट बदल कर सो गयी
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पत्तियां रंग बदलती हैं गिरती उड़ती हैं पेड़ सूखते हैं हरियाते हैं यादें सिमटती हैं फैलती हैं दुःख नहीं जाता उस चिड़िया के घोंसले से गिर जाने का
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तार पर सूखती अकेली सफ़ेद चादर को छोड़ इंतज़ार में ठंडे हुए खाने को फिर गर्म करने से पहले गैस के सिलिंडर को हिला कर तौलती सूर्य की आखिरी किरणों से उलझती साइकिल के घर लौटने के इंतज़ार में
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तुम पर कुछ उधार नहीं मेरे सम्पूर्ण प्यार तुमने मेरी कविता को पंख नहीं दिए मैं अस्वीकृत प्यार का कर्ज़दार हूँ जिसने कल्पना का छोटा सा दरवाज़ा खोला
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पिता की बाँहों और मां की गोद से जन्म लिए हुए बकरी का भोजन बनने से प्रायः बचे हुए हरी, पीली, सूखी पत्तियों को दान कर गौतम को बुद्ध बनाते हुए कलेवों से जकड़े हुए , मंगली से ब्याहे हुए कुचली रजनीगंधा की महक से जले हुए बरगद के शव पर चढ़ कर बालक अपनी माँ को पुकारता है